Sunday, August 2, 2020

सैलाब & दो सांसों के बिच

सैलाब

गजरेकी महेक रोम रोम मे बस गयी

रातभर आखोंसे नींद गायब रही.

हुस्न के खयाल स ईश्क बेकरार

न जाने कब सैलाब आया और सांसोंको राहत दे गया.

ईश्क की गहरायीमे डूबे जब आंख झपकी तो सुबह बडी सुहानी लगी.


दो सांसों के बिच

दो सांसों के बिच तुम हो

दो सांसों के बिच तुम्हारी याद है

दो सांसों के बिच तुम्हारी मुस्कराहट की सादगी है

दो सांसों के बिच तुम्हारे स्पर्श का एहसास है

दो सांसों के बिच तुम्हारा प्यार है

दो सांसों के बिच तुम्हारी ना खतमहोनेवाली बातें है

दो सांसों के बिच तुम हो !

सोचो....

जब तुम न थीं तो ये सांसे कितनी खाली थी

और उस खालीपनमे सांस लेना कितन मुशकिल था

सांस तो अब ले रहें है और थोडासा जी रहे हैं।।

सांस को शिकायत का मौका मत दो क्युंकी...

आपने दिल मांगा, दे दिया

आपने मुहब्बत की, हमने कबूल की

आपने भरोसा किया और हमने निभाया.

हम आपके हैं, जान ले लो तो उफ् ना करेंग्

आपकी खुशीसे मेरी सांस चलती है

खुश रहो वरना सांसे शिकायत करती हैैं !


2 comments:

  1. Do saason ke beech... loved it,the concept, the thought...superb

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  2. * आपका "सैलाब" बहुत सकून देनेवाला है।

    * "दो सांसों के बीच का सफर" का वृतांत और कवि की कल्पना को आपने बेहतरीन शब्दों में प्रस्तुत किया है। पढ़कर मजा आ गया।
    प्रफुल्ल शरण

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